आल्हा एक ऐतिहासिक वीर पुरुष के जीवन से संबंधित वीर रस प्रधान लोक गाथा है आल्हा गायन का प्रचलन पावस ऋतु में है बुंदेलखंड में आषाढ़ के महीने से लेकर सावन के कजरी त्यौहार तक गांव गांव में आल्हा गाया जाता है
गांव में किसान लोग चौपाल चबूतरो पर एकत्रित होकर ढोलक की थाप पर मधुर परंतु ओजस्वी व् बुलंद सुरो में आल्हा गाते हैं
आल्हा केवल बुंदेलखंड में ही नहीं अपितु राजस्थान, बेसबाड़ा, मिर्जापुर, इलाहाबाद, कन्नौज, पश्चिमी बिहार आदि स्थानों पर भी गाया जाता है
वीर आल्हा के नाम से प्रचलित इस लोक गाथा में श्रृंगार रस, करुणा रस, हास्य रस, वात्सल्य ,रौद्र रस, का सुंदर समावेश मिलता है यधपि वीर रस इसमें प्रधान रस है
इस गाथा में तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक सभी स्तिथितियो का समाहार मिलता है
आल्हा गाते गाते समय पधात्मक भाषा का ही सहारा लिया जाता है परंतु बोल और तान के उतार-चढ़ाव में ऐसा लगता है जैसे गधात्मक भाषा में भी वर्णन किए जा रहा हो इसमें एक समान शब्दों की यतियाँ नहीं प्रयुक्त होती है परंतु यत्र तत्र की आवृति अवश्य रहती है