बुंदेली उत्सव के सांस्कृतिक आयोजन

बुंदेलखंड के शासक महाराजा छत्रसाल ने अपने राज्य की सीमाओं का चार प्रमुख नदियों तक विस्तार किया कल कल निनाद करती नदियां चंबल, टोस,  यमुना और नर्मदा बुंदेलखंड की सीमाओं शोभा बढ़ाती है एक लंबे समय तक किसी भी सामंती राजा ने महाराजा छत्रसाल के एक छत्र राजू को चुनौती देने का साहस नहीं किया और इन चार नदियों से बनी सीमा रेखा के बीच का हिस्सा बुंदेलखंड कहां जाने लगा

किसी कवि ने कुछ भाव इस तरह से प्रकट किए हैं –

” इत यमुना उत नर्मदा इत चंबल उत टोस ” छत्रसाल सों लरन की, रही ना काहू होस |

बुंदेलखंड जहां एक ओर अपनी वीरता के लिए जाना जाता है वहीं दूसरी ओर बुंदेलखंड की सांस्कृतिक परंपरा अत्याधिक समृद्ध लोक सम्पृक्त है लोग जीवन मैं लोक संगीत तथा लोक नृत्य सर्वत्र व्याप्त है लोक नृत्य और लोक संगीत अपनी सरलता और मधुरता से बरबस ही मन मोह लेते हैं

लोक नृत्य और लोक संगीत के विभिन्न रंग प्रतीक हैं यह मानव स्वभाव के शुभता में हमारे अटूट विश्वास की और आपदाओं से जूझने की हमारे सामर्थ्य की यह घोतक है शक्ति के प्रति हमारे सम्मान की और उस निराकार में हमारी आस्था की ,  लोक रंगों की लय मैं सौम्यता, भव्यता, भाव प्रावणता, उन्माद एवं सभी कुछ है लोक रंगों का अपना एक अलग ही संसार है जो कहीं लिखित निर्देशों या अनुदेशकों से शासित नहीं होता बरन यह पीढ़ी दर पीढ़ी स्वयं ही अपनी परंपराएं स्थापित कर लेता है बुंदेलखंड कि यह लोक कलाएं, बुंदेलखंड के कोने कोने में व्याप्त है परंतु वर्तमान का परिद्रश्य  एकदम भिन्न आज बुंदेलखंड मध्य प्रदेश राज्य के पिछड़े हिस्सों में एक है अपर्याप्त रेल यातायात और टूटी बिक्री सड़कों पर अगर जोड़ रखा है तो अनियमित शासकीय बस सेवा ने जब वर्षा ऋतु आती हैं तो अधिकतर गांव तक पहुंचना करीब नामुमकिन सा हो जाता है इन सब कारणों ने बुंदेलखंड की सांस्कृतिक भूमि को दुनिया से बहुत कुछ अलग है काट दिया बावजूद इन परिस्थितियों के बरस 1995 का बसंत पंचमी पर एक रंग बिरंगी और रस भरी सौगात बुंदेली उत्सव  के रूप में लेकर आया ग्राम बसारी में  ग्राम बसारी जो कि विश्व पर्यटन मानचित्र में अंकित विश्व प्रसिद्ध कला तीर्थ खजुराहो से मात्र 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है

दिवारी

अक्टूबर के अंत और नवंबर के प्रारंभ में खरीफ की फसल की कटाई के बाद दीपोत्सव दिवारी के उपलक्ष में घर को स्वच्छ एवं प्रकाशित करके नवधान्य से परमात्मा को धन्यवाद देकर कष्ट के क्षणों में उनका अनुग्रह बना रहे जैसे इंद्र की प्रकोप से बचने के लिए ब्रज वासियों की रक्षा भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर की थी अन्नकूट गोवर्धन महोत्सव के रूप में समुदाय दिवारी नृत्य कर अपने आनंद की अभिव्यक्ति करते हैं सभी देव स्थानों में जाकर नित्य करते हैं उनके रंगीन वस्तुओं और डंडों में छद्म लड़ाई की अभिव्यक्ति ढोलक और नगडिया की ताल पर शरीर की गति की चरम परिणति नित्य को विराम देती है

रावला

रावला नृत्य कृषक वर्ग के चर्मकार एवं बुनकर समुदाय के लोगों की नृत्य नाट्य विद्या है जिसकी माध्यम से चेहरे के भाव और अति मनोरंजक संवाद दर्शकों का मनोरंजन करते  हैं इस नृत्य को सिर्फ पुरुष कलाकार ही प्रदर्शित करते हैं जिसमें एक विदूषक बनता है और दूसरा स्त्रियों की वेशभूषा में नृत्य करता है

राई

आज राई बुंदेलखंड का सर्वप्रिय लोक नृत्य है जिसका आरम्भ  मध्यकाल में शास्त्रीय नृत्य के रूप में हुआ था परंतु जब इसकी अभिव्यक्ति की शास्त्रीय परंपरा का हास हुआ तब यह लोक रंजन की श्रृंगारिका अभिव्यिक्त के र्स्वरूप में नैतिक मान्यताओं के विपरीत, सिर्फ कामुक अभिव्यक्ति के प्रदर्शन से सामाजिक सम्मान से वंचित होकर मात्र होली की मस्ती एवं बरात के मनोरंजन के लिए  गणिकाओ तक ही सीमित रह गया आज इसकी पुनरोत्थान की आवश्यकता है जिससे खोए हुए सम्मान एवं शास्त्रीय स्वरूप को पुनः स्थापित किया जा सके जिस तरह थाली में राई के दाने स्थिर नहीं रहते रहते और विशेष गति से घूमते रहते हैं उसी तरह से राई नृत्य की तीव्र चककरो  माध्यम से ढोलकिए को प्रतिस्पर्धा के लिए प्रेरित करती है

नर्तकी एवं वादक, गीत और लय, भाव और भंगिमायें, युव हृदयों को आंदोलित कर श्रृंगार सम्मोहन एवं नारी की कम नीयता शरीर के लोच भावो के रस अनुप्राणित करती है

अश्व नृत्य

वस्त्रों की रंगारंग छटा एवं काफी लंबे समय तक प्रशिक्षित सुंदर घोड़ों की नृत्य की परंपरा त्योहारों की जुलूस ओं एवं बारात की साथ  कन्या के द्वार अश्व नित्य की परंपरा बुंदेलखंड में काफी प्राचीन है “रब्बी” विशालकाय ढोलों की गड़गड़ाहट के बीच थिरकते हुए अश्व और उनकी आगे पीछे शोर्यपूर्ण युद्ध में जाने के लिए हमारे मन में भाव का संचार करती है मुख्य रूप से विवाह  के मौसम में गांव – गांव में अश्व  नित्य देखने को मिलता है और विवाह की पहली रस्म बधु के दरवाजे पर द्वारचार के रूप में अश्व को सम्मान और वर को सम्राट की अनुभूति देता है

 फाग

ढोलक और नगडिया , मंजीरा और जीका की ध्वनि तरंगों में लंबी आलाप की खीच के साथ फाग गीतों की अभिव्यक्ति , संगीत और भाव की मस्ती , फागुन के महीने की गुनगुनी धूप और रात की ठंडी बयार , बसंत ऋतु में के माध्यम से जन मन की कल्पना और कामिनी की आसक्ति होली के रंगों की फुहार जीवन को मस्ती में डुबो देती है जीवन की रिक्तता को आनंद से भर देती है मौसम की बयार मैं आम की बौर की मादकता एवं माटी की सौगंध का एहसास कराती है

आल्हा

ग्रीष्म ऋतु की तपती धरती, अषाड और वर्षा की फुहारों से ठंडी और लोग तो होकर कृषकों को अन्न उगाने की प्रेरणा देती है वही कृषि कार्य से मुक्त होने के बाद वर्षा ऋतु में आवक जावक की कठिनाइयों,  किसानों को अपने ग्राम तक ही केंद्रित कर देती है ऐसे अवकाश के समय में जीवन को सौर और संघर्ष की जीवन शक्ति अनुप्राणित करती है

आल्हा गायन की प्राचीन परंपरा जिसके नायक है – मध्यकाल के आल्हा उदल, गायन में वीर रस प्रधानता, युद्ध कौशल सूक्ष्मता और अपने मूल्यों पर मर मिटने की आदर्शवादिता आल्हा गायन की प्रमुख विशेषता

 दादरे  – गारी

लोक संगीत की परंपराओं में, विवाह समारोह में, संस्कारों के प्रारंभ मे व  समापन पर,  गारी एवं दादरे गीतों के माध्यम में वर-वधू के प्रति आशीष व उनकी कोमल भावनाओं को श्रृंगार रस में सिंचित कर भावो की मनभावन परंपरा आज भी गांव गांव में प्रचलित है विवाह के मंगलिक अवसर पर वर वधू के स्वरूप की संपन्नता और विवाह के उपरांत वधू को उनके संस्कारों के प्रति, परिवार की लगाव  के प्रति, कर्तव्य एवं कार्य कुशलता के प्रति सचेत करती है स्त्री कोमल भावनाओं से नई सृष्टि की प्रवृत्ति ही नारी का धर्म है जीवन की सार्थकता विनाश समर्पण की संपूर्ण नहीं होती गीतो के माध्यम से नववधू को संस्कारित करने का कार्य करती है

लमटेरा

लमटेरा गीत कार्तिक मास के उपरांत बसंत ऋतु की समापन एवं ग्रीष्म ऋतु के आगमन वैशाख मास तक बुंदेलखंड की धार्मिक यात्राओं में गाये जाते हैं तीर्थ स्थानों की वंदना, शिवालयों में जलार्पण, रबी फसल की बुआई के बाद वैशाख में नव अन्न के घर आगमन तक ईश्वर को धन्यवाद स्वरूप धार्मिक यात्राओं के माध्यम से भावनाओं को भक्ति और समझ को समपर्ण, जीवन की वास्तविकता ईश्वर प्राप्ति का मार्ग गीतों की मूल आत्मा होती है परंतु इसकी श्रगांरिक भाव संसार की महत्वता , जीवन के प्रति लगाव, और जीव की मुक्ति की भावना, श्रृंगार और समर्पण के भाव से अभिव्यक्त होती है बर्ष भर जीवन के कार्यों मैं व्यक्त रहने के बाद भगवान के प्रति भक्त अनुभूति खोए हुए शिशु के प्राप्ति की मनोदशा संवेदना ओं की पराकाष्ठा की अनुभूति कराती है

पारंपरिक खेलकूद

बुंदेलखंड के प्रचलित पारंपरिक खेलकूद, शारीरिक एवं मानसिक स्फूर्ति से भरे हुए शरीर सौष्ठव और जीवन के प्रति जुझारूता, एवं जीवन को खेल भावना स्वीकारते हुए, अवस्था की प्रगति, जीवन को स्फूर्ति, एवं समाज के साथ सामंजस्य, मन को आनंदित करने वाला प्रयास, जीवन का सबसे महत्वपूर्ण खेल, जिसकी पारंपरिक अभिव्यक्ति इन खेलों मैं झलकती है

खेल स्पर्धाओं का आयोजन भी बुंदेली उत्सव में इन्हीं भावनाओं के साथ ही आ जाता है इन स्पर्धा में कबड्डी, चौपर, लंबी कूद, वॉलीबॉल, आदि का आयोजन किया जाता है

बुंदेली भजन (ज्योनार‌‌ थार बुंदेली)

रोजमर्रा तथा खेती के काम की व्यस्तता के समय की साधारण व्यंजन – भटा, गकरीयां या चटनी, भाजी, रोटी, भोजन की सादगी के प्रतीक हैं

त्योहार और अवसर काज मांगलिक अवसरों पर लपसी, मालपुआ, खीर, लुचई, मगध और माडे, स्वाद एवं रसपूर्ण  व्यंजन है वहीं बरा – सन्नाटो , बिजौरे, कचरिया, महेरो, मीडा अंचल की सुगंध के साथ स्वाद और सात्विकता को लिए हुए हैं

वन्य भोज में मिर्चा – मांस , रोटी – बदरौटी,  खिचड़ी, भरता और कैथा की चटनी, महुआ और मोरका, जंगल की सुगंध जीवन को रस और ताजगी प्रदान करती है

बुंदेली उत्सव में इन लुप्त होती व्यंजनों को बुंदेली व्यंजन प्रतियोगिता के माध्यम से पुनः प्रचलित करने का प्रयास किया जाता है