फड़ साहित्य की अभिव्यंजना शैलियों में सैर का प्रमुख स्थान है सैर बुंदेलखंड के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं गाई जाती है बुंदेली लोक रागनी पर आधारित सैरो के फड़ जब लगते हैं तो श्रोता गण मंत्रमुग्ध हो घंटों तक बैठे रहते हैं
इसका गायन दायरे या चंग पर सामूहिक रूप से किया जाता है सैर रागिनी के जनक श्री गंगाधर व्यास को माना जाता है सैर एक पुराना लौकिक छंद है जो 12 और 10 के विश्राम से 22 मात्राओं का होता है यह काव्य प्रभाकर के राधिका व कुंडल छंद से मिलता-जुलता है यह शोभा का छंद का अपभ्रंश है चारों सैरो का एक झुमका होता है सैरो की अपनी कुछ विशेष तर्जे एवं धुनें होती हैं जिनमें अत्याधिक बारीकी होती है सैरकार एक ही वर्ण की आवृत्ति एक ही पंक्ति में 2 से लेकर 8 बार तक की अपनी अद्भुत कला कौशल का परिचय देते हैं जिसे दुअंग , चौअंग , छटअंग , आठअंग ,ककेहरा आदि कहा जाता है