बुंदेलखंड

बुन्देलखण्ड
बुन्देलखण्ड
बुन्देलखण्ड मध्य भारत का एक प्राचीन क्षेत्र है।इसका प्राचीन नाम जेजाकभुक्ति है. इसका विस्तार उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में भी है। बुंदेली इस क्षेत्र की मुख्य बोली है। भौगोलिक और सांस्‍कृतिक विविधताओं के बावजूद बुंदेलखंड में जो एकता और समरसता है, उसके कारण यह क्षेत्र अपने आप में सबसे अनूठा बन पड़ता है।बुंन्देेला, शासकों और महाराजा छत्रसाल राजा बुन्देेला का इतिहास होने के बावजूद बुंदेलखंड की अपनी अलग ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्‍कृतिक विरासत है। बुंदेली माटी में जन्‍मी अनेक विभूतियों ने न केवल अपना बल्कि इस अंचल का नाम खूब रोशन किया और इतिहास में अमर हो गए। महान चन्देल शासक बिधाधर चन्देल, आल्हा-ऊदल, खेतसिंह खंगार,महाराजा छत्रसाल,राजा भोज, ईसुरी, कवि पद्माकर, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, डॉ॰ हरिसिंह गौर दद्दा मैथिली शरण गुप्त मेजर ध्यान चन्द्र गोस्वामी तुलसी दास माधव प्रसाद तिवारी आदि अनेक महान विभूतियाँ इसी क्षेत्र से संबद्ध हैं।बुंदेलखंड में ही तारण पंथ का जन्म स्थान है।

उत्तर प्रदेश के सात जिलों चित्रकूट, बांदा, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी और ललितपुर का भूभाग बुंदेलखंड कहलाता है। लगभग 29 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले इस इलाके में कुल 24 तहसीलें, 47 ब्लाक और जनसंख्या लगभग एक करोड़ है। हालांकि राजनीतिक स्तर पर जिस पृथक राज्य की परिकल्पना है उसमें तेइस जिले हैं जिनमें मप्र के भिंड, मुरैना, शिवपुरी, गुना, विदिशा, रायसेन, नरसिंहपुर, सागर, दमोह, ग्वालियर, दतिया, जबलपुर, टीकमगढ़, भिंड, छतरपुर, पन्ना और सतना भी शामिल हैं

इतिहास, संस्कृति और भाषा के मद्देनजर बुंदेलखंड बहुत विस्तृत प्रदेश है। लेकिन इसकी भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषिक इकाइयों में अद्भुत समानता है। भूगोलवेत्ताओं का मत है कि बुंदेलखंड की सीमाएं स्पष्ट हैं और भौतिक तथा सांस्कृतिक रूप में निश्चित है कि यहां भारत का एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है, जिसमें न केवल संरचनात्मक एकता, भौम्याकार और सामाजिकता का आधार भी एक ही है। वास्तव में समस्त बुंदेलखंड में सच्ची सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक एकता है।

प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता एस० एम० अली ने पुराणों के आधार पर विंध्यक्षेत्र के तीन जनपदों विदिशा, दशार्ण एवं करुष का सोन-केन से समीकरण किया है। इसी प्रकार त्रिपुरी लगभग ऊपरी नर्मदा की घाटी तथा जबलपुर, मंडला तथा नरसिंहपुर जिलों के कुछ भागों का प्रदेश माना है। इतिहासकार जयचंद्र विद्यालंकार ने ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टियों को संतुलित करते हुए बुंदेलखंड को कुछ रेखाओं में समेटने का प्रयत्न किया है, विंध्यमेखला का तीसरा प्रखंड बुंदेलखंड है जिसमें बेतवा (वेत्रवती), धसान (दशार्ण) और केन (शुक्तिगती) के काँठे, नर्मदा की ऊपरली घाटी और पचमढ़ी से अमरकंटक तक ॠक्ष पर्वत का हिस्सा सम्मिलित है। उसकी पूरबी सीमा टोंस (तमसा) नदी है।

वर्तमान भौतिक शोधों के आधार पर बुंदेलखंड को एक भौतिक क्षेत्र घोषित किया गया है और उसकी सीमाएं इस प्रकार आधारित की गई हैं- वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विंध्य पलेटो की श्रेणियों, उत्तर-पश्चिम में चंबल और दक्षिण-पूर्व में पन्ना-अजयगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है। इसमें उत्तर प्रदेश के जालौन, झांसी, ललितपुर, चित्रकूट हमीरपुर, बाँदा और महोबा तथा मध्य-प्रदेश के सागर, दमोह, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दतिया के अलावा भिंड जिले की लहार और ग्वालियर जिले की मांडेर तहसीलें तथा रायसेन और विदिशा जिले का कुछ भाग भी शामिल है। हालांकि ये सीमा रेखाएं भू-संरचना की दृष्टि से उचित कही जा सकतीं।

संस्कृति

बुंदेली संस्कृति के रंग अत्यधिक समृद्ध और विविधवर्णी है। डॉ. नर्मदाप्रसाद गुप्त के द्वारा लिखा गया है कि यहाँ की लोक संस्कृति पुलिंद, निषाद शबर, रामठ, दाँगी आदि आर्येतर संस्कृतियों के द्वारा प्रभावित थी। आर्य ॠषियों की आश्रमी संस्कृति रामायण काल में फली-फूली थी। और वन्य संस्कृति महाभारत काल में भी बनी रही थी। बुंदेलखंड की लोक संस्कृति की नींव नाग वाकाटक काल में रखी गई थी। लोक संस्कृति और लोक कलाओं को इस काल में जितना निखार और उत्कर्ष प्राप्त हुआ है, उतना इन सात-आठ सौ वर्षों में कभी नहीं दिखाई दिया है। बुंदेली लोक संस्कृति और लोक कलाओं की धारा इन समस्त परिवर्तनों और परिवर्द्धनों में भी अजस्त्र रूप से बहती रही है।

बुंदेलखंड शौर्य, साहस और श्रृंगार के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध अंचल है। भारत के मध्य भाग में स्थित होने के कारण यहाँ की भूमि पर अनेक जातियों- जनजातियों का हमेशा से आवागमन रहा है। यहाँ अनेक संस्कृतियाँ आती जाती रही है, इसके कारण बुंदेलखंड की संस्कृति में कई जातियों की संस्कृति के बहुत से तत्त्व मिलते हैं, जिनमे योद्धा जातियों- जनजातियों के लोगों की संस्कृतियों का आवागमन अधिक रहा है। इसके कारण यहाँ के लोगों में शौर्य और साहस जैसी प्रवृत्तियों का विकास हुआ है।

खजुराहो के कला मन्दिर इन मंदिरों में बुंदेलखंड की ही नहीं, विश्व की अप्रतिम धरोहर हैं। खजुराहो के मन्दिर में एक तरफ़ नृत्य, संगीत और उत्सव आयोजन के दृश्य उत्कीर्ण किये जाते हैं तो दूसरी तरफ़ आखेट, हस्ति युद्ध आदि के दृश्य उत्कीर्ण किये जाते हैं।

बुन्देलखंड : प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र

इतिहास साक्षी है कि भारत की आजादी के प्रथम संग्राम की ज्वाला मेरठ की छावनी में भड़की थी। किन्तु इन ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे एक सचाई गुम है, वह यह कि आजादी की लड़ाई शुरू करने वाले मेरठ के संग्राम से भी 15 साल पहले बुन्देलखंड की धर्मनगरी चित्रकूट में एक क्रांति का सूत्रपात हुआ था। पवित्र मंदाकिनी के किनारे गोकशी के खिलाफ एकजुट हुई हिंदू-मुस्लिम बिरादरी ने मऊ तहसील में अदालत लगाकर पांच फिरंगी अफसरों को फांसी पर लटका दिया। इसके बाद जब-जब अंग्रेजों या फिर उनके किसी पिछलग्गू ने बुंदेलों की शान में गुस्ताखी का प्रयास किया तो उसका सिर कलम कर दिया गया। इस क्रांति के नायक थे आजादी के प्रथम संग्राम की ज्वाला मेरठ के सीधे-साधे हरबोले। संघर्ष की दास्तां को आगे बढ़ाने में बुर्कानशीं महिलाओं की ‘घाघरा पलटन’ की भी अहम हिस्सेदारी थी। आजादी के संघर्ष की पहली मशाल सुलगाने वाले बुन्देलखंड के रणबांकुरे इतिहास के पन्नों में जगह नहीं पा सके, लेकिन उनकी शूरवीरता की तस्दीक फिरंगी अफसर खुद कर गये हैं। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे बांदा गजट में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। गजेटियर के पन्ने पलटने पर मालूम हुआ कि वर्ष 1857 में मेरठ की छावनी में फिरंगियों की फौज के सिपाही मंगल पाण्डेय के विद्रोह से भी 15 साल पहले चित्रकूट में क्रांति की चिंगारी भड़क चुकी थी। दरअसल अतीत के उस दौर में धर्मनगरी की पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध कराते थे। गौमांस को बिहार और बंगाल में भेजकर वहां से एवज में रसद और हथियार मंगाये जाते थे। आस्था की प्रतीक मंदाकिनी किनारे एक दूसरी आस्था यानी गोवंश की हत्या से स्थानीय जनता विचलित थी, लेकिन फिरंगियों के खौफ के कारण जुबान बंद थी। कुछ लोगों ने हिम्मत दिखाते हुए मराठा शासकों और मंदाकिनी पार के ‘नया गांव’ के चौबे राजाओं से फरियाद लगायी, लेकिन दोनों शासकों ने अंग्रेजों की मुखालफत करने से इंकार कर दिया। गुहार बेकार गयी, नतीजे में सीने के अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रही। इसी दौरान गांव-गांव घूमने वाले हरबोलों ने गौकशी के खिलाफ लोगों को जागृत करते हुए एकजुट करना शुरू किया। फिर वर्ष 1842 के जून महीने की छठी तारीख को वह हुआ, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। हजारों की संख्या में निहत्थे मजदूरों, नौजवानों और बुर्कानशीं महिलाओं ने मऊ तहसील को घेरकर फिरंगियों के सामने बगावत के नारे बुलंद किये। खास बात यह थी कि गौकशी के खिलाफ इस आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम बिरादरी की बराबर की भागीदारी थी। तहसील में गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई तो बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगीं। देखते-देखते अंग्रेज अफसर बंधक थे, इसके बाद पेड़ के नीचे ‘जनता की अदालत’ लगी और बाकायदा मुकदमा चलाकर पांच अंग्रेज अफसरों को फांसी पर लटका दिया गया। जनक्रांति की यह ज्वाला मऊ में दफन होने के बजाय राजापुर बाजार पहुंची और अंग्रेज अफसर खदेड़ दिये गये। वक्त की नजाकत देखते हुए मर्का और समगरा के जमींदार भी आंदोलन में कूद पड़े। दो दिन बाद 8 जून को बबेरू बाजार सुलगा तो वहां के थानेदार और तहसीलदार को जान बचाकर भागना पड़ा। जौहरपुर, पैलानी, बीसलपुर, सेमरी से अंग्रेजों को खदेड़ने के साथ ही तिंदवारी तहसील के दफ्तर में क्रांतिकारियों ने सरकारी रिकार्डो को जलाकर तीन हजार रुपये भी लूट लिये। आजादी की ज्वाला भड़कने पर गोरी हुकूमत ने अपने पिट्ठू शासकों को हुक्म जारी करते हुए क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए कहा। इस फरमान पर पन्ना नरेश ने एक हजार सिपाही, एक तोप, चार हाथी और पचास बैल भेजे, छतरपुर की रानी व गौरिहार के राजा के साथ ही अजयगढ़ के राजा की फौज भी चित्रकूट के लिए कूच कर चुकी थी। दूसरी ओर बांदा छावनी में दुबके फिरंगी अफसरों ने बांदा नवाब से जान की गुहार लगाते हुए बीवी-बच्चों के साथ पहुंच गये। इधर विद्रोह को दबाने के लिए बांदा-चित्रकूट पहुंची भारतीय राजाओं की फौज के तमाम सिपाही भी आंदोलनकारियों के साथ कदमताल करने लगे। नतीजे में उत्साही क्रांतिकारियों ने 15 जून को बांदा छावनी के प्रभारी मि. काकरेल को पकड़ने के बाद गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद आवाम के अंदर से अंग्रेजों का खौफ खत्म करने के लिए कटे सिर को लेकर बांदा की गलियों में घूमे। काकरेल की हत्या के दो दिन बाद राजापुर, मऊ, बांदा, दरसेंड़ा, तरौहां, बदौसा, बबेरू, पैलानी, सिमौनी, सिहुंडा के बुंदेलों ने युद्ध परिषद का गठन करते हुए बुंदेलखंड को आजाद घोषित कर दिया। “बुन्देलखंड एकीकृत पार्टी” के संयोजक संजय पाण्डेय कहते है कि जब इस क्रांति के बारे में स्वयं अंग्रेज अफसर लिख कर गए हैं तो भारतीय इतिहासकारों ने इन तथ्यों को इतिहास के पन्नों में स्थान क्यों नहीं दिया?सच पूछा जाये तो यह एक वास्तविक जनांदोलन था क्योकि इसमें कोई नेता नहीं था बल्कि आन्दोलनकारी आम जनता ही थी इसलिए इतिहास में स्थान न पाना बुंदेलों के संघर्ष को नजर अंदाज करने के बराबर है। कहा कि बुन्देलखंड एकीकृत पार्टी प्रचार प्रसार के माध्यम से बुंदेलों की यह वीरता पूर्ण कहानी सारी दुनिया तक पहुचायेगी

बुंदेलखंड का भोजन, पेय व वस्त्राभरण

महुआ और बेर बुंदेलखंड के लोगों का सबसे प्रिय भोजन है। ये दोनों वृक्ष इस जगह के लोकप्रिय वृक्ष हैं। यहाँ महुआ को मेवा, बेर को कलेवा (नास्ता) और गुलचुल का सबसे बढ़िया मिष्ठान माना जाता है, जैसा कि इस पंक्ति से स्पष्ट होता है

मउआ मेवा बेर कलेवा गुलचुल बड़ी मिठाई।
इतनी चीज़ें चाहो तो गुड़ाने करो सगाई।।

चिल्लाह तारा घाट, बुंदेलखंड- 1838
लटा मछुओं को भूनकर और उसके बाद कूट कर उनमें गरी, चिरौंजी आदि मेवा मिला कर छोटी- छोटी कुचैया की तरह बनाया जाता है, यह इस जगह का विशेष भोजन रहा है। यहाँ के लोग बाहर से आने वाले मेहमानों के लिए इसी भोजन को परोसते थे। यहाँ के लोगों की एक कहावत अधिक प्रचलित हैं कि खानें को मउआ, पैरबै में अमोआ इस बात का संकेत देती है कि स्थानीय लोगों में मउआ और अमोआ दोनों काफ़ी लोकप्रिय रहा है। भोजन के संबंध में अनेक लोक मान्यताएँ प्रचलित हैं:-

चैत मीठी चीमरी बैसाख मीठो मठा
जेठ मीठी डोबरी असाढ़ मीठे लठा।
सावन मीठी खीर- खँड़ यादों भुजें चना,
क्वाँर मीठी कोकरी ल्याब कोरी टोर के।
कातिक मीठी कूदई दही डारो मारे कों।
अगहन खाव जूनरी मुरी नीबू ज़ोर कें।
पूस मीठी खिचरी गुर डारो फोर कों।
मोंव मीठी मीठे पोड़ा बेर फागुन होरा बालें।
समै- समै की मीठी चीज़ें सुगर खबैया खावें।

बुंदेलखंडवासियों में हर मौसम में अलग भोजन खाने का प्रचलन था। ये लोग भोजन खाने में कभी- कभी काफ़ी सावधानी से काम लेते हैं। बुंदेलखंड के लोगों में बेर का बहुत ही विशेष महत्त्व था। यहाँ की एक कहावत है

मुखें बेर, अघाने पोंड़ा ये लोग भोजन खाने से पहले बेर ज़रूर खाते थे।

कनी उर भाला की अनी यहाँ के लोगों का मानना था कि कच्चे चावल की नोंक भाले की नोंक के बराबर हानिकारक होती है।

बुंदेलखंड के लोगों के भोजन का प्रभाव लोक संस्कृति पर दिखाई देता था। इसलिए वह लोग यह मानते थे कि जैसा भोजन किया जाएगा, वैसा ही मन होगा।

जैसो अनजल खाइये, तैसोई मन होये।
जैसो पानी पीजिए, तैसी बानी होय।।

दर्शनीय स्थल

बुंदेलखंड की शान खजुराहो जिला छतरपुर में बुंदेला शासकों द्वारा निर्मित मंदिर विश्व प्रसिद्ध हैंं।ये हिंदू व जैन धर्म के लिये विशेष महत्व रखता है।कुंडलपुर जो जैन धर्म का महत्वपूर्ण स्थल है।मैहर में मां शारदा का मंदिर ५२ शक्ति पीठ में एक है।झांसी में किला जो लक्ष्मीबाई की वीरता की झलक दिखाता है।ओरछा प्रसिध्द हिंदू तीर्थों में एक है।चित्रकूट का मंदिर बेहद सुंदर है। सोनागिर प्रसिद्ध जैन तीर्थ है। अन्य दर्शनीय स्थल-

  • महोबा कीरत सागर
  • कालिंजर दुर्ग
  • सतना
  • पन्ना राष्ट्रीय उद्यान
  • चरखारी प्राकृतिक सुन्दरता.
  • बेलासागर
  • ग्वालियर नगर
  • झाँसी
  • बरूआसागर
  • भेडाघाट
  • नीलकंठेश्वर मंदिर उदयपुर बासौदा
  • सांची
  • भीमबेटका
  • पपौरा जी
  • निसईजी मल्हारगढ़
  • कूँडादेव मंदिर (कुँडेश्वर मंदिर-जमड़ार नदी पर स्थित )
  • जटाशंकर मंदिर
  • भीमकुँड
  • रने फाल
  • पाँडव फाल, पाँडव गुफायें
  • बल्देवगढ़ का किला एवं तालाब(11वीं सदी)

उद्योग और व्यापार

दस्तकारी के लिए बुंदेलखंड की प्रसिद्धि दूर-दूर तक है। चंदेरी के कपड़े और ज़री के काम के लिए, गऊ कपड़े बुनने के लिए तथा दतिया, ओरछा, पन्ना और छतरपुर मिट्टी के बर्तन तथा लकड़ी और पत्थर के काम के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ कोरियों के द्वारा जाजम, दरी, कालीन, लोहारों के द्वारा बन्दूक के कुन्दे और नाल, गड़रियों के द्वारा कंबल तथा बजीरों के द्वारा चटाईयाँ, बच्चों के लेटने के लिए चँगेला, टोकनियाँ, चुलिया-टिपारे और पँखे आदि बड़ी कुशलता से बनाते हैं।

अवधारणा के अनुसार

एक प्रचलित अवधारणा के अनुसार वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विन्ध्य प्लेटों की श्रेणियों, उत्तर-पश्चिम में चम्बल और दक्षिण पूर्व में पन्ना, और आज़मगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाता है।

  • इसमें उत्तर प्रदेश के चार ज़िले- जालौन, झाँसी, हमीरपुर और बांदा
  • मध्यप्रेदश के चार ज़िले- दतिया, टीकमगढ़, छत्तरपुर और पन्नाके अलावा उत्तर-पश्चिम में चम्बल नदी तक प्रसरित विस्तृत प्रदेश के नाम था। कनिंघम ने “बुन्देलखण्ड के विस्तार के समय इसमें गंगा और यमुना का समस्त दक्षिणी प्रदेश जो पश्चिम में बेतवा नदी से पूर्व में चन्देरी और सागर के ज़िलों सहित विन्ध्यवासिनी देवी के मन्दिर तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने के निकट बिल्हारी तक प्रसरित था।